Wednesday, November 23, 2011

मैंने एक ख़त लिखा था तुमको

मैंने एक ख़त लिखा था तुमको
आज भी किताबो में छिपा है वो ख़त
फटे ख़त के पन्ने आज भी मुस्कराते है
लिपट कर तुम्हारे फोटो से
वो गुजरा पल दिखाते है
कई राते दिन बन गयी थी
दिन में चांदनी नजर आती थी
एक ख़त जो तुम्हे देना था
पर मुझे शर्म आती थी
मेरा चुपचाप मन
ख़त में बोल रहा था
आज वही ख़त मुझ से बोल रहा है
मुझे फाड़ कर गंगा में क्यों नहीं बहाते
निर्मल मन की बात क्यों दबाते
अगर वो फाड़ कर उड़ाती किसी राह पर
नहीं होती मुझे उम्रकेद किताबी पन्नो में

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